मंगलवार, 12 मई 2009

धर्मक्षेत्र कुरूक्षेत्र

हमारा भारत कश्मीर से कन्याकुमारी और कामाख्या से कच्छ तक एक तीर्थ है। यहां कोई ऐसी क्षेत्र नहीं जहां कोई पावन सरिता, पवित्र सरोवर, तीर्थभूत पर्वत, लोकपावन सरिता, मन्दिर या तीर्थभूमि न हो। यहां तो सब कहीं तीर्थ हैं। एक-एक तीर्थ में शत-शत तीर्थ हैं। भारत भूमि देवताओं के लिए भी दुर्लभ है तथा देवताओं के द्वारा भी इसकी वंदना की जाती है। इस देवधरा पर कितने तीर्थ हैं इसकी गणना करना संभव नहीहै। हालांकि इस विषय में थोड़ी-सी चर्चा यहां अवश्य करेंगे। भारत के प्रसिद्व तीर्थों में जिनका नाम आता है उनमें द्वादश ज्योतिल्र्लिग, पंचकाशी, पंचनाथ, पंचसरोवर, नौ अरण्यक, चतुर्दश प्रयाग, सप्तक्षेत्र, सप्तगंगा, सप्तपुण्य नदियां सिद्वक्षेत्र (इक्यावन), बावन शक्तिपीठ, सप्त सरस्वती, सप्तपुरियां,चार धाम आदि जाने कितने ऐसे तीर्थ स्थान हैं। जो अपने-अपने महत्व के कारण जगत प्रसिद्व हैं। इन सब में एक ऐसा तीर्थ स्थान है जिसका कुछ विशेष महत्व है और वह है कुरूक्षेत्र। कुरूक्षेत्र एक ऐसा तीर्थ स्थान है जिसकी गणना सप्तक्षेत्र, बावन शक्तिपीठ, सप्त सरस्वती इक्यावन सिद्वक्षेत्र आदि सभी में समान रूप से की गई है।
संसार के जिन स्थानों पर सबसे पहले मानव सभ्यता का विकास हुआ, उनमें धर्मक्षेत्र कुरूक्षेत्र का नाम अग्रगण्य है। सरस्वती एवं दृषद्वती जैसी पवित्र नदियों की इस धरा पर वैदिक सभ्यता का उद्भव हुआ। भारतीय धर्म, दर्शन, कला, साहित्य आदि के विकास में प्रथम सृजन यहीं हुआ। कृष्ण यजुर्वेद की मैत्रायणी शाखा में कुरूक्षेत्र का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद से प्राप्त जानकारी के अनुसार आर्यों की प्रमुख जातियां भरत एवं पुरू भी इसी पावन धरा से जुड़े रही हैं। जिनके सम्मिश्रण से कुरू नामक जाति का आविर्भाव हुआ। इसलिए ही इसे कुरूक्षेत्र कहा गया है । कुरूक्षेत्र यानि कुरूओं का क्षेत्र। प्रचलित किंवदंतियों के अनुसार महाराज कुरू ने 48 कोस कुरूक्षेत्र भूमि पर सोने का हल चलाया तथा धर्म का बीज बोया। कहा जाता है कि एक बार जब पृथ्वी पर अनाचार बहुत बढ़ गया। प्राणियों की दुर्दशा से दुःखी देवता बुद्धि के देवता परमपिता ब्रह्मा के पास पहुंचे। जब उन्होंने अपनी समस्या बताई तो वे बोले-इस समय धरती पर धर्म उत्थान के लिए एक ही उपाय है। सभी देवता एक साथ बोले- क्या उपाय है परमपिता शीघ्र बताइए?
इस पर ब्रह्मा जी ने कहा-हे देवताओं, आप इतने उत्सुक हैं तो ध्यान से सुनो-महाराज कुरू एक प्रतापी तथा धर्म व नीति से राज्य करने वाले राजा हैं।अगर वह अपने शरीर के टुकड़े कर बोने को तैयार हो जाएं तो जहां-जहां उनके शरीर के टुकड़े रोपित होंगे, वहां से धर्म का उत्थान होगा।अतः आप उनके पास जाइए और इसके लिए उनसे प्रार्थना कीजिए तथा श्री विष्णु की भी इस पावन कार्य में आप मदद ले सकते हैं।
तदनन्तर देवगण महाराजा कुरू के पास पहुंचे और उनसे ब्रह्मा जी के कथनानुसार अनुरोध किया। जब राजन् से देवों ने पृथ्वी के उत्थान की बात सुनी तो उन्होंने वह अनुरोध सहर्ष स्वीकार कर लिया। फिर सही समय पर भगवान श्री विष्णु के सुदर्शन चक्र से कुरू के शरीर के टुकडों में बांटकर कुरूक्षेत्र के पास के 48 कोस क्षेत्र में उनके द्वारा स्वयं हल चलाकर बोया गया। जब अंतिम टुकड़ को बोया जाने लगा तो भगवान नारायण ने उन्हें वर मांगने के लिए कहा। जिस पर महाराजा कुरू ने कहा कि प्रभु मुझे वर दीजिए कि भविष्य में जब कभी धर्म-अधर्म में युद्ध हो तो इसी भूमि पर हो।
ऐसा सुनकर प्रभु ने कहा -तथास्तु। तभी से यह पुण्य भूमि कुरूक्षेत्र के नाम से विख्यात है और यही कारण यहाँ धर्मयुद्ध महाभारत होने की पृष्ठभूमि भी रहा है। इसके अतिरिक्त दंत कथाओं, किंवदंतियो, जनश्रुतियों इत्यादि में भी इस बात की पुष्टि होती है। इस संबंध में कथाएं, प्रसंग एवं आख्यान प्रचलित हैं तथा उनका विशद विवरण भी प्राप्त होता है। यहां स्थित श्रयणावत सरोवर के पास इंद्र को महर्षि दधीचि से अस्थियों की प्राप्ति, पुरूरवा और उर्वशी का पुनर्मिलन, परशुराम द्वारा आततायी क्षत्रियों के खून से पांच कुण्ड भरने का वर्णन, वामन अवतार जैसे कई आख्यान लोक प्रचलित हैं।
महाभारत के युद्ध की रणस्थली तथा श्री मद्भगवतगीता के अद्वितीय उपदेश का पवित्र स्थल कुरूक्षेत्र एक ऐतिहासिक स्थान है। तैत्तिरीय आरण्यक में वर्णित इसके भौगोलिक रूप को देखने पर पता चलता है कि यह क्षेत्र सरस्वती, दृषद्वती, आपगा से परिबद्ध था। तैत्तिरीय आरण्यक के अनुसार इसके दक्षिण में खाण्डवप्रस्थ अर्थात् इंद्रप्रस्थ, पश्चिम भाग में मरूभूमि है।
महाभारत और वामन पुराण के अनुसार सरस्वती और दृषद्वती के मध्य की भूमि कुरूक्षेत्र कहलाती थी। जिसके चारों कोनों में चार यक्ष (द्वारपाल) प्रतिष्ठित थे। यहां 360 तीर्थों के होने की चर्चा है। ये सभी तीर्थ पौराणिक दृष्टि से सत्युग, त्रेतायुग, द्वापर युग एवं ऐतिहासिक दृष्टि से महाभारत के पूर्ववर्ती व परवर्ती काल से संबंधित हैं।
इस प्रकार से यहा सारी 48 कोस कुरूक्षेत्र भूमि हरियाणा के कुरूक्षेत्र, कैथल, करनाल, जीन्द एवं पानीपत जिलों में फैली हुई है।महाभारतानुसार उत्तर-पूर्व में रंतुक यक्ष (बीड़ पीपली के पास) पश्चिम में अरंतुक यक्ष (कैथल में बेहर गांव के पास) दक्षिण-पश्चिम में रामहृद यक्ष (जिला जीन्द में रामराय के पास) एवं दक्षिण पूर्व में मचक्रुक यक्ष (जिला पानीपत में शींख के पास) का स्पष्ट वर्णन मिलता है। इस प्रकार इन चार यक्षों द्वारा रक्षित इस आयताकार 48 कोस की भूमि में 360 तीर्थों की उपस्थिति मानी जाती है।
यहाँ के एक प्रसिद्ध लोक कवि ‘साधुराम’ की रचना के अनुसार यहां 9 नदियां 366 गाँव, 4 यक्ष, 33 करोड़ देवी-देवता, नाथ तथा 84 सिद्धों का निवास है।
कुरूक्षेत्र के पावन भूमि पर स्थित प्रमुख तीर्थों में ब्रह्मसरोवर, सन्निहित सरोवर, ज्योतिसर, पेहवा का पृथूदक तीर्थ, स्थानेश्वर महादेव मंदिर, भ्रद्रकाली मंदिर, रामहृद तीर्थ, सालवन तीर्थ, कपिलमुनि तीर्थ, वराह तीर्थ, आपगा तीर्थ ,सारसा का शालिहोत्र तीर्थ, बस्थली का व्यास स्थली तीर्थ, फरल (फलकीवन) स्थित फल्गु व पणिश्वर तीर्थ, भूरिश्रवा तीर्थ (भौर सैंदा), आदि अनेक प्रमुख तीर्थ हैं।
सप्तक्षेत्र, बावन शक्तिपीठ, सप्त सरस्वती, सिद्धक्षेत्र (इक्यावन) आदि में शामिल कुरूक्षेत्र की इस 48 कोस की पावन धारा पर स्थित हर गांव का संबंध किसी न किसी रूप में संस्कृति या सभ्यता से जुड़ा है।
वामन पुराण में कुरूक्षेत्र भूमि में स्थित सात वनों का स्पष्ट नामोल्लेख मिलता है। जैसे - काम्यक वन, अदिति वन, व्यास वन, फलकीवन, सूर्यवन वन, मधुवन तथा शीतवन । वामन पुराण के अनुसार इन पुण्यशाली वनों के नाम का उच्चारण करते ही मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं:-
श्रृणु सप्त वनानीह कुरूक्षेत्रस्य मध्यतः।
येषां नामानि पुण्यानि सर्वपापहराणि च।
काम्यकं वनं पुण्यं दितिवनं महत्।
व्यासस्य वनं पुण्यं फलकीवनमेव
तथा सूर्यवनस्थानं तथा मधुवनं महत्।
पुण्यं
शीतवनं नाम सर्वकल्मषनाशनम्
(वामन पुराण-34/3-5)
शास्त्रों के अनुसार सप्त सरस्वतियों में से एक ओघवती सरस्वती कुरूक्षेत्र में प्रवाहित होती है। इस विषय में प्राप्त शास्त्रोक्त जानकारी के अनुसार यहां सरस्वती प्रवाहित होती है। जिसका स्वरूप अब बदल चुका है। इसमें वर्षा ऋतु में ही पानी दिखाई देता है। सरस्वती के बारे में जो जानकारी हमें प्राप्त होती है तदनुसार पता चलता है कि सरस्वती सम्पूर्ण नदियों में श्रेष्ठ एवं पाप नाशक नदी है तथा ब्रह्मलोक से आई है।
सरस्वती सर्वप्रथम अपने जलावेग से पर्वतों को तोड़ती द्वैत वन में प्रविष्ट होती है। जहां महर्षि मार्कण्डेय उनके दर्शन करते हैं तथा उनसे कहते हैं कि हे सरस्वती! ब्रह्मसर, रामहृद, कुरूक्षेत्र, पृथूद्क (पिहोवा) में चलना योग्य है। ऐसा सुनकर सरस्वती वेग के साथ कुरूक्षेत्र पृथूद्क में प्रवेश करती है। पर कुछ किवंदंतियों के अनुसार जब मार्कण्डेय को सरस्वती के दर्शन होते हैं। उनसे विवाह का प्रस्ताव रखते हैं।
जिससे देवी रूष्ट होकर सर्प पर सवार होकर पेहवा से बानपुरा, कक्योर, पोलड़, सौथा, उमेदपुर, प्रभोत, घोघ, अन्घली से होती हुई साहब तक तीव्र गति से सांप की तरह टेढ़ी-मेढ़ी चलती हैं। वहीं मार्कण्डेय उन्हें मनाने के लिए उनके पीछे सीधा चलता है। लेकिन जब सरस्वती को यह अहसास होता है तो वह सर्प सवारी को छोड़कर हंस पर सवार होती हैं और डहर तक जाती है।
जब उन्हें मार्कण्डेय समीप प्रतीत होते है तो वह डूबकी लगाती हैं और प्रयागराज में प्रकट होती है। तब मार्कण्डेय भी योग साधना द्वारा प्रयाग में प्रकट होते हैं। जहां सरस्वती गंगा और यमुना के बीच से चलती है। ऐसे में जब मार्कण्डेय अपने मन की बात उन तीनों के सामने प्रस्तुत करते हैं तो वे बताती है कि हम तीनों ब्रह्मा की पुत्रियां हैं। हम एक साथ विवाह करेंगी अथवा कुंवारी रहेंगी। मार्कण्डेय जी ने कोई उत्तर नहीं दिया और तपस्या करने के लिए वन में चले गए।
तभी से सरस्वती त्रिवेणी रूप में प्रवाहित हो रही है। सरस्वती वास्तविकता में नदी नहीं वरन् उसे विद्या की देवी है जो समंदर में समाहित नहीं होती। अतः यह कुमारिका नदी भी कहलाती है।
मनुस्मृति के अनुसार देवनदी सरस्वती एवं दृषद्वती फल्गु में है। इन दोनों के मध्य जो स्थान है उसे ब्रह्मवर्त कहा जाता है। जहां ब्रह्मा ने यज्ञ किया था।
महाभारत के अनुसार ब्रह्मपुराण, स्कंद पुराण, शिवपुराण, भागवत पुराण, मार्कण्डेय पुराण आदि में तीस सरस्वती नदियों का वर्णन मिलता हैं। यथा-सुप्रभा नामक सरस्वती पुष्कर में, कांचनाक्षी सरस्वती नैमिषारण्य में ,प्रयाग सरस्वती गया में, उत्तरकौशल में मनोरमा सरस्वती तथा कुरूक्षेत्र में सुरेणु सरस्वती (ओघवती सरस्वती) जो दृषद्वती में मिल गई है तथा हिमालय की विमलोद सरस्वती जिसे श्री मद्भागवत में प्राची भागवत भी कहा गया है। यहां सातों सरस्वती इकट्ठी होने के कारण इसे सप्त सारस्वत तीर्थ की संज्ञा दी गयी है। दूसरा सप्त सारस्वत तीर्थ भी कुरूक्षेत्र की सीमा में ही विद्यमान है; जहां मंकणक मुनि को सिद्धि प्राप्त हुई थी। मंकणक मुनि के नाम से मांगणा नामक गांव में प्रसिद्ध तीर्थ है; यहां से सरस्वती जिला कैथल में प्रवेश करती है।जो वर्तमान में पूरे कुरुक्षेत्र के भू-भाग को पुलकित करती हुई बहती है ।निःसन्देह कहा जा सकता है कि कुरुक्षेत्र एक पवित्र धरा है जो हरियाणा ही नहीं वरन सम्पूर्ण भारत के लिए विरासत है।

4 Comments:

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