रविवार, 28 फ़रवरी 2010

होली मुबारक

वर्तमान हालात कुछ ऎसे प्रतीत होते हैं -
होलिका नहीं
' बस ' जल रही
रं जैसा बरसे पैट्रोल
आग लगी है तन-मन में
कैसे हो कंट्रोल ॥


लेकिन कहते हैं अच्छा सोचना चाहिए-
होली के शुभ अवसर पर आपको हार्दिक शुभकामनाएं ।

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

कल मानव की तैयारी(१४११)

है फिक्र किसको
है फुरसत किसे

कौन मिट गया
कौन मिट रहा
नहीं सरोकार
किसी बात से
सिवा खुद के
है चाहता कोई किसे
हर आदमी बस जी रहा
स्वार्थ-निहित जिंदगी
चाहता हर-पल यही
सब करें उसकी बंदगी
कल मिटी इंसानियत
आज बाघ की बारी है
मिट रहा आज बाघ तो
कल मानव की तैयारी है
पर,
फर्क क्या इस बात से
बदल गया है वक्त

इंसानियत के बिना
दिखता नहीं मनुष्यत्व
इस तरह तो अपना भी
नहीं रहेगा अस्तित्व
सच मानिए
अकेला चना
फोड सकता भाड
संपूर्ण प्राणी-जगत की
हमें चाहिए आड
जरूरत है हमें सबकी
अपने लिए
अपना संसार सुंदर
बनाए रखने के लिए
हो जिंदगी सबकी
इस तरह तो दूर तक
नहीं दिखाई कोई देगा
सोचो , एक बार
एकाकी जीवन होगा
बस अपना जीवन.......


बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

उधार

वह कुछ दिन से मोबाइल लेने की सोच रहा था। आज मन बना कर बेटे की दुकान पर गया और बोला,'' बेटा,मुझे भी एक मोबाइल दे दो '' बेटा बोला,'' ले लीजिए डैडी ,पर हाँ... आजकल मैंने उधार देना बन्दकर दिया है।'' बेटे का जवाब सुनकर वह कुछ देर के लिए असमंजस में पड़ गया और कुछ संभलते हुए बस इतना ही कहा- ''ठीक है बेटा,जब पैसे होंगे तब खरीद लूंगा।'' फिर इसके बाद वह मन में उठते हुए अनेक निरुत्तर सवालों का जवाब ढूंढ़ने निकल पड़ा

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

सच्ची संपत्ति

हम इस ब्लाग पर साहित्य और संस्कृति को साथ-साथ लेकर चलते रहे हैं। कभी कविता तो कभी कहानी और कभी विरासत की बात। आज आपसे एक विशेष प्रसंग बांटने जा रहा हूं ,आप इसे विरासत की बात समझें या फिर प्रेरक-प्रसंग ,ये आप के ऊपर छोड रहा हूं। लीजिए प्रस्तुत है-
काफी समय पहले की बात है किसी गांव में स्थित एक आश्रम में एक महात्मा रहते थे। जो काफी वृद्ध हो चुके थे और अब सोच रहे थे कि अपनी जिम्मेदारी किसी और को सौंप दूं। आश्रम के नाम बहुत जमीन-जायदाद थी। एक बार महात्मा जी ने सोचा,'' क्यों न आश्रम की जमीन को गरीबों में बांट दिया जाए ।'' इसके लिए एक दिन उन्होंने आस-पास के गांवों के सभी लोगों को एकत्रित करने की योजना बनायी और बुलावा भेज दिया।
महात्मा जी की इच्छा जानकर बुलावा पाते ही आस-पास के हजारों लोग नियत समय पर आश्रम के बाहर इक्कठे हो गए। जब महात्मा जी ने बाहर आकर देखा और इक्कठे हुए लोगों पर नजर दौडाई तो देखकर हैरान रह गए। क्योंकि वहां आए गरीब लोगों में गांवों के बडे-बडे जमींदार भी शामिल थे जो जमीन पाने की लालसा से आए थे । तब महात्मा जी ने कहा,''सबसे पहले वह व्यक्ति सामने आए जिसके पास सबसे ज्यादा जमीन है।'' उसके आगे आने पर वे बोले,''बोलो कितनी जमीन चहिए ?'' इस पर उस जमींदार ने कहा कि महाराज जितनी मर्जी दे दो । महात्मा जी उसकी बात सुनकर कुछ देर के लिए चुप हो गए और फिर कुछ सोच कर बोले,''आप सांय ५ बजे तक जहां तक दौड कर वापस आ जायेंगे उतनी जमीन आपकी ।'' महात्मा जी की यह बात सुनकर वह जमींदार बहुत खुश हुआ और उसने दौड़ना शुरु कर दिया। वह इतना दौडा कि दौड़ते-दौड़ते हांफने लगा पर अधिक जमीन पाने की लालसा में बहुत दूर चला गया और बहुत दूर पंहुच जाने के बाद उसके दिमाग में वापसी का विचार आया । मगर मन में अभी भी यही इच्छा थी कि दस कदम और......। लेकिन समय पर न पहुंच पाने की चिंता ने उसे वापस मोड़ दिया। पर अब समय बचा ही कहां था जो वह नियत समय पर वापस आश्रम पहुंच पाता। दौड़ते-दौड़ते उसकी सांसें फूलने लगी, कदम लड़खड़ाने लगे और अब उसका शरीर उसका साथ छोड़ रहा था। हांफते-हांफते जैसे ही वह आश्रम के द्वार के पास पहुंचा तो नियत समय लगभग समाप्त हो चला था सो उसने लेट कर आश्रम की देहली को छूना चाहा लेकिन शरीर अब निष्क्रिय हो चुका था, जैसे ही आगे बढ़ने के लिए उसने लेटना चाहा तो वह गिर गया और गिरते ही दम टूट गया।
महात्मा जी की नज़र उस पर पड़ी और उसे एक नज़र देखकर आए हुए जनसमूह से कहने लगे,'' ..और किसको ,कितनी जमीन चाहिए.. आगे आ जाओ।'' उनकी यह बात सुनकर सब लोग पीछे हट गए। तब महात्मा बोले,''यही दो गज़ जमीन जिसमें यह लेटा हुआ है इसकी असली और सच्ची सम्पत्ति है।'' अब किसी आगंतुक के मन में जमीन लेने की इच्छा नहीं रह गयी थी तथा सभी अपने-अपने घर लौट गए ।


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