गुरुवार, 5 जून 2008

बचपन

वह मुरझाया सा चेहरा
हाथों में पत्थर के
दो टुकड़े लिए
जिनसे मिटती सी
प्रतीत हो रही थी
उसकी भाग्यरेखा
'बस' में कभी इधर
कभी उधर
वह नन्ही सी जान
छोटी सी उम्र
लोगों का मनोरंजन
करता हुआ
उनके मन का विषाद
दूर करता
पर !
खुद की खुशियां
शायद खो सी गयी थी
भारी विषाद और थकावट की
चेहरे पर झलक थी
हमारी सारी कोशिशें
शायद बेकार हो गयी हैं
और आज भी
हमारे भविष्य की
स्कूल जाने की उम्र
भीख मांगने में गुजर रही है।

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