मंगलवार, 12 मई 2009

तीर्थ क्या है

हम भारत की विशाल संस्कृति, सभ्यता की विरासत तीर्थ-स्थलों में से कुछ का परिचय यहां आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। जिसके तहत तीर्थ शब्द को परिभाषित किया जा रहा है। क्योंकि तीर्थों से परिचित होने के साथ हमें यह भी जान लेना चाहिए कि शाब्दिक दृष्टि सेतीर्थका क्या अर्थ होता है।

तीर्थ शब्द की उत्पति संस्कृत भाषा के 'तृ-प्लवनतरणयोः ' धातु से 'पातृतुदिवचिरिचिसिचिभ्यस्थक्' इस उणादि सूत्र से 'थक्प्रत्यय होने पर होती है। ‘तीर्यते अनेन’ अर्थात् इससे तर जाता है; इस अर्थ में तीर्थया अर्धार्चादि सेतीर्थःशब्द भी बनता है।
अमर सिंह ने निपान, आगम, ऋषिजुष्ट जल तथा गुरू की भी तीर्थसंज्ञा बतायी है -
' निपानागमयोस्तीर्थमृषिजुष्टजले गुरौ। '
(अमर0 3/थान्त 93)
अमर सिंह के टीकाकार निपान में तीर्थ का अर्थ नदी आदि में या जलाशय में किया है तथा आगम का अर्थ शास्त्र किया है। इसके साथ उन्होंने ऋषिसेवित जल, उपाध्यायादि एवं अयोध्या, काशी आदि स्थानों को तीर्थ कहा है।
विश्वप्रकाश-कोशकर ने शास्त्र, यज्ञ, क्षेत्र, उपाय, उपाध्याय, मंत्री, अवतार, ऋषिसेवित जल आदि को तीर्थ कहा है-
' तीर्थ शास्त्राध्वरक्षेत्रोपायोपाध्यायमन्त्रिषु।
अवतार्षिजुष्टाम्भः स्त्रीरजःषु च विश्रुतम्। '
(थद्विकम्, 8)
भारवि इस विषय में किरातार्जुनीयम्में कहते हैं-
' विषमोपि विगा हयते नयः
कृततीर्थः पयसामिवाशयः।। '
(किरात0 2/3)
कादम्बरी में बाणभट्ट लिखते हैं-
' तीर्थ सर्वविद्यावताराणाम् ।। 88 ।। '
अर्थात् तीर्थ उपचार साधन भी है।
इसी प्रकार भर्तृहरिशतकत्रयम्रघुवंशम्में कहा गया है;-
' मनो यद्यस्ति तीर्थन् किम् ॥ '
(भर्तृ0-2/55) ( रघु0- 1/85)
कहा गया है कि वह स्थान तीर्थ है जो किसी पावन नदी के किनारे स्थित हो।
इसी प्रकारमातंगलीलामें लिखा है-
‘तदनेन तीर्थेन घटेत्। ’
अर्थात् मार्ग माध्यम या साधन।
एवमेव- पुण्यात्मा, योग्य व्यक्ति के अर्थ में-
' क्व पुनस्तादृशस्य तीर्थस्य साधोः संभवः। '
(उतररामचरितम्-1)(मनुस्मृति-3/103)
मालविकाग्निमित्रमेंतीर्थशब्द को धर्मोपदेष्टा,अध्यापक के अर्थ में स्पष्ट किया गया है-
मया तीर्थादभिनयविद्या शिक्षित। '
इस प्रकार विभिन्न स्थानों परतीर्थशब्द को एक अनेक अर्थों में परिभाषित किया गया है। जिसके उपरांततीर्थशब्द को परिभाषित करते समय हम कह सकते हैं -
''तीर्थ से अभिप्राय उस माध्यम से है जो मानव को अंधकार से उजाले की ओर लेकर चलता है अर्थात् ऐसा व्यक्ति या स्थान जो किसी भी ढ़ंग से मनुष्य को स्वच्छता अथवा शुचिता प्रदान करता है।''
क्योंकि जल, महात्मा, पुण्यात्म, उपचार या अन्य जितने भी नाम उपरोक्त विद्वानों या ग्रन्थों द्वारा तीर्थ को दिए हैं वे सब मनुष्य को सुसंस्कृत बनाने में मददगार हैं और उसके मनोमालिन्य को दूर करते हैं।
तीर्थशब्द से परिचित होने के बाद तीर्थों संबंधी जानकारी प्राप्त करना रूचिकर तो होगा ही उसके साथ-साथ हमारे लिए हितकर भी रहेगा। अगर तीर्थ के महत्त्व की बात भी यहाँ की जाए तो प्रासंगिक भी होगी और लाभप्रद भी रहेगी शास्त्रों में इनके महत्व पर बहुत कुछ लिखा है पर यहाँ इस लेख में अथर्ववेद का निम्नलिखित मंत्र ही उचित और श्रेयस्कर रहेगा -
‘तीर्थ स्तरन्ति प्रवतो महीरीति,
यज्ञकृतः सुकृतो येन यन्ति। ’
अथर्ववेद (18-4-7)
मनुष्य तीर्थों के सहारे बड़ी से बड़ी विपतियों से तर जाता है। बड़े से बड़े पाप तीर्थ -सेवन से समाप्त हो जाते हैं, और तो और तीर्थ स्थान करने वाला महान यज्ञ करने वालों के रास्ते से ही स्वर्ग जाता है। इसी प्रकार ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद में भी तीर्थ के महत्व पर अनेक मंत्र संकलित हैं।

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