अस्सी वर्षीय धर्मू नया सिलवाया गया धोती-कुर्ता पहने पंडाल के बाहर अभी तक बैठा था और आने-जाने वालों का अभिनंदन उसी से करवाया जा रहा था। शायद यही वजह थी जो धर्मू के मन में कसक थी और वह बार-बार अपने बहू-बेटों की ओर देख व्यंग्यात्मक रुप से मुस्कुरा रहा था ; पर उसकी आँखों में पानी था।
धर्मू रोना चाहता था लेकिन रो नहीं सकता था और बेबसी में आज भूतकाल वर्तमान की तरह उसकी आँखों के सामने घूम रहा था।
एक घटनाक्रम बार-बार उसके अतीत को वर्तमान से जोड रहा था। धर्मू ने कर्मवती के साथ विवाह के बाद दिहाडी-मजदूरी करके अपने परिवार का पालन-पोषण किया। उसके लिए आराम हराम था। कर्मवती जिसे धर्मू प्यार से कमो कहता था ने दो बेटों को जन्म दिया। दोनों के लिए आराम हराम था। जब भी दोनों पति-पत्नी इकठ्ठे होते तो एक ही बात होती चाहे जो हो हमें बच्चों को पढा-लिखा कर बडा आदमी बनाना है। सही ढंग से पढाने-लिखाने के बाद जिस दिन वे अपने पाँव पर खडे हो गये तो उनका ब्याह रचाया। उस दिन कमो ने धर्मू से कहा था-'लो जी,आज तो हमारी सारी जिम्मेदारियाँ पूरी हो गई और आराम से बैठकर खाने के समय आ गया।' दोनों प्रसन्न थे।
बड़ा बेटा सच में बडा बन गया था ! उसकी पुलिस में नौकरी जो लग गई थी। छोटा भी अब छोटा न था क्योंकि उसकी भी अब सरकारी नौकरी लग गई थी और अच्छी खासी तनख्वाह ले रहा था। पर माता-पिता के बुढापे के साथ-साथ दोनों ने ऎसे किनारा कर लिया जैसे उनकी कोई जिम्मेदारी ही न हो। बेटे-बहुएं अपनी-अपनी कोठियों में चले गये तथा कमो और धर्मू अपने घर में अकेले गये । उस दिन कमो ने धर्मू से भावुक होते हुए कहा-'देखो, कितना घोर कलयुग आ गया है ? जिन बच्चों के लिए मजदूरी करते-करते हमने अपनी उम्र बिता दी ; जिनके सुख के लिए हमने न दिन देखा न रात , आज वही............।'
उसका वाक्य उसके गले में ही जैसे अटक सा गया और वह फ़फ़क कर रो पड़ी थी। तब धर्मू ने उसे दिलासा दिया था कि कमो बस कर ,शायद कुदरत को हमारी मेहनत का यही फ़ल मंजूर है। फ़िर शिकायत करें तो किससे ? तब कमो ने धर्मू का हाथ अपने हाथ में लेकर आंसू पौंछते हुए संभलने का भाव प्रकट कर कहा था-'मुझे बस तेरे साथ की जरुरत है।' यही तो उसने सुहाग रात के दिन कहा था।
पर वास्तव में उम्र के आखरी पड़ाव पर कमो इस सदमे से उभर नहीं पाई और बीमार हो गई। ऎसे में कर्मू ही उसे उठाता-बैठाता और देखभाल करता। पर , गाँव में होकर भी बहू-बेटों ने उसकी कोई खबर नहीं ली और धीरे-धीरे वह अपनी चारपाई की टूटती पुरानी रस्सियों की तरह टूट गई। अंत में उसने धर्मू से कहा था-'मैं सुहागन मरना चाहती थी। आज ईश्वर ने मेरी सुन ली है। मैंने जीवन भर तुम्हे दु:ख ही दु:ख दिए , कोई सुख नहीं दिया।
लेकिन आज दु:खों का अंत हो जाएगा। इसलिए तुम मुझे वचन दो कि तुम मेरी मौत के बाद नहीं रोओगे।' और यह कहते ही उसने प्राण त्याग दिये ।
गाँव के लोग इक्कठे होने लगे तथा उनकी आवाज सुनकर माँ की मौत पर दु:ख ढो़ग करते रोते हुए बहू-बेटे भी वहाँ पहुँचे । अंत्येष्टि आदि का कार्य समाप्त होने के बाद तेरहवीं के दिन बेटों ने प्रतिष्ठा का
भोज आयोजित किया,जिसमें सारा गाँव आमंत्रित था।
अभी धर्मू अतीत से वर्तमान में लौटा ही था कि उसकी नजर एक बार फ़िर अपने सजे-धजे बेटे-बहुओं पर चली गई और वह सोचने लगा- काश ! कमो मुझे भी अपने साथ ले जाती । अब मैं इस ढोंगी संसार में कैसे रहूंगा ? सोचते-सोचते उसकी आंखों में पानी आ गया। अभी आंसू आंखों से निकलकर गालों पर लुढ़के भी न थे कि उसका बडा बेटा उसे आंसू साफ़ करने के लिए कहता हुआ बोला-'बापू , तुम अपने आंसू पौंछ लो । हम भोज आयोजित रहे हैं , कोई शोक सभा नहीं । लोग क्या कहेंगे ?
धर्मू भीतर ही भीतर सिसककर रह गया और उसने आंसू पौंछ लिये। पर, न जाने किसके लिए ? लोगों के लिए या....................।