गुरुवार, 28 मई 2009

पवन हृदय तीर्थ (पबनावा)

कैथल से कुरूक्षेत्र मार्ग पर कैथल से उतर दिशा में 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है गांव पबनावा। इसे पवन हृदय के नाम से जाना जाता था। पवन हृदय का अर्थ है पवन देवता का हृदय । यहां एक सरोवर है। जिसके पश्चिम किनारे पर पवन देव का मन्दिर है। पवन देव का वाहन हिरण भी उनके चित्र में दिखाया गया है।
इसके इलावा यहां भगवान श्री कृष्ण का मन्दिर भी है। जो शैली की दृष्टि से मथुरा वृन्दावन के मन्दिरों जैसे हैं। इस विषय में वामन पुराण में लिखा गया है कि पवन देव अपने पुत्र श्री हनुमान के शोक में इस सरोवर में लीन हो गए थे। ऐसा माना जाता है कि इस तीर्थ में स्नान करने से और उसके बाद महेश्वर का दर्शन करके मनुष्य पाप विमुक्त हो जाता है। महाभारत के वन पर्व में कहा गया हैः-
पवनस्य हृदे स्नात्वा मरूतां तीर्थमुत्तमम्।
तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र विष्णुलोके महीयते।।

(महाभारत, वनपर्व 83/104/105)
जनधारणा के अनुसार सरोवर में पवन देव के विलीन होने के बाद 49 पवनें भी यहां एकत्र हो गई और पूरे संसार को बिना पवन के सांस लेना असंभव हो गया।तब ऐसी भयंकर परिस्थिति में ब्रह्मा जी के साथ मिलकर सभी देवताओं ने पवन देव से प्रार्थना की। इसके बाद प्रार्थना से प्रसन्न होकर वायु देव प्रकट हुए और संसार में
वायु का प्रवाह आरम्भ हुआ। अतः इसी कारण से इसे पवन हृदय के नाम से माना जाता है।

बाबा राजपुरी (बाबा-लदाना)

हरियाणा के कैथल जिल के पश्चिम की ओर 10 किलोमीटर की दूरी पर एक गांव है।जिसका नाम है- बाबा लदाना इस गांव में मन्दिर एवं समाध हैं जो सांस्कृतिक दृष्टि से हमारी स्वर्णिम विरासत हैं। मन्दिरों के साथ-साथ यहां स्थित समाधों के प्रति लोगों की बड़ी भारी आस्था है। जिनमें प्रमुख है:- बाबा राजपुरी की समाध। यहां के निवासियों से प्राप्त जानकारी के अनुसार 400 वर्ष पूर्व बाबा राजपुरी ने यहां जीवित अवस्था में समाधि ले ली थी। इसी तरह यहां पर छोटी बड़ी 33 समाधियां हैं। इनके पास एक जाल का वृक्ष है। जो इन समाधियों से भी पुराना माना जाता है। इसके पास ही एक शिव मन्दिर भी है। दशहरे के अवसर पर यहां बड़ा भारी मेला लगता है। जिसमें हरियाणा पंजाब, राजस्थान, दिल्ली आदि के लोग शामिल होते हैं। यहां समाधि स्थल के नाम 70 एकड़ भूमि है। समाधि स्थल पर एक वर्गाकार सरोवर भी बना है।

शनिवार, 23 मई 2009

पूण्डरीक तीर्थ पूण्डरी

भक्त शिरोमणि पूण्डरीक का नाम आपने सुना होगा। उन्हीं के नाम से बना है पूण्डरी। यह तीर्थ स्थान पूर्व दिशा में कैथल से 16 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
लोक किंवदन्तियों के अनुसार भक्त पूण्डरीक तपस्या करते करते भगवान के अंश में मिल गए थे। अन्त में उनका निष्पाप शरीर श्याम वर्ण का हो गया तथा 4 भुजाएं और हाथ में शंख, चक्र, गदा और पदम् आ गए थे। स्वयमेव उनके वस्त्र पीले रंग के हो गए और मुख मण्डल तेज से चमकने लगा। जिससे उन्हें पूण्डरीकाक्ष कहा गया तथा भगवान विष्णु उन्हें अपने साथ अपने वाहन गरूड़ पर बैठाकर वैकुण्ठधाम ले गए। शास्त्रों के अनुसार इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने अपने नाभी कमल से ब्रह्मा जी को उत्पन्न किया तथा संसार की उत्पति की। इसके विषय में महाभारत के वनपर्व और वामन पुराण में भी उल्लेख है-
शुक्लपक्षे दशम्यां च पुण्डरीकं समाविशेत्।
तत्र सनात्वा नरो राजन्पुण्डरीकफलं लभेत्।।
(महाभारत, वन पर्व 83/85/86)
पौण्डरीके नरः स्नात्वा पुण्डरीकफलं लभेत् ।
दशम्यां शुक्लपक्षस्य चैत्रस्य त विशेषतः।
स्नानं जपं तथा श्राद्धं मुक्तिमार्गप्रदायकम्।।
(वामन पुराण 36/39-40)
इस महान तीर्थ पर सिद्ध बाबा दण्डीपुरी, ग्यारहरूद्री महादेव का छोटा-सा तालाब युक्त मन्दिर, गीता भवन आदि स्थित हैं।

अरन्तुक यक्ष स्थल-बहर

पंजाब और हरियाणा दोनों का मिला-जुला सांस्कृतिक स्थान है-बहर। यह पटियाला से 40 किलोमीटर और कैथल से उतर पश्चिम में 24 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
कुरूक्षेत्र की 48 कोस की पवित्र भूमि के चारों दिशाओं में 4 यक्ष बताए गए हैं। जिनमें से अरन्तुक यक्ष एक है। जो बहर में स्थित माना जाता है । निर्धारित चारों द्वारपालों में से इसका अधिक महत्व माना गया है। द्वारपालों को तरन्तुक, अरन्तुक, रामह्रद तथा मचक्रुक यक्ष के नाम से जाना जाता है। इसका वर्णन महाभारत के वनपर्व तथा शल्यपर्व में किया गया है:-
तरंतुकारंतुकयोः यदंतरंरामहृदानां च मचक्रुकस्य च ।
एतत् कुरूक्षेत्रसमंतपंचकं पितामहस्योत्तरवेदिरूच्यते।।

(महाभारत,वन पर्व 83/208 शल्य पर्व, 53/24)
जैसा कि उपरोक्त पंक्तियों में वर्णन है तद्नुसार अरन्तुक यक्ष बहर में स्थित है। यक्ष शब्द से कुबेर का अर्थ लिया जाता है। क्योंकि कुबेर धन के देवता है। इसलिए ऐसा माना गया है कि ये चारों यक्ष भी द्वारापालों के समान इस क्षेत्र की सख और समृद्वि के यह रक्षक है। इस स्थान परस्नान करने से मानव को अग्निष्टोम का फल प्राप्त होता है।
बहर नामक गांव में उतर पश्चिम में स्थापित पूर्ण परिसर में कई देवी देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं। जिनमें से भगवान विष्णु की मध्यकालीन प्रतिमा विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।यह मूर्ति बालुका पत्थर से बनाई गई है। चैत्र अमावस्या के दिन यहां विशाल मेले का आयोजन होता है। जिसमें हरियाणा और पंजाब के लोग बढ-चढ़ कर भाग लेते हैं। ऐसा माना गया है कि इन दिनों यहां सरस्वती का वास होता है।

श्रंगी,मार्कण्डेय एवं शकुदेव मुनि स्थल

श्रंगी ऋषि स्थल(सांघण):-
कैथल से पश्चिम की ओर 16 किलोमीटर दूर है गांव सांघण । जहां श्रृगी ऋषि का छोटा सा मन्दिर सरोवर के किनारे बना है। इसके अतिरिक्त एक शिव और दूसरा गणेश मंदिर भी है।
श्रृंगी स्थल परिसर में अब बाबा राम नेत्र त्यागी द्वारा एक मुख्य द्वार बनवाया गया है। प्रत्येक रविवार को श्रृंगी ऋषि के दर्शन के लिए लोग आते हैं। यहां 25 एकड़ में फैला एक विशाल सरोवर भी है।श्रृंगी ऋषि द्वारा युग में दशरथ के लिए शुभ पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाया गया था। यज्ञ के प्रभाव से राजा दशरथ को 4 पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न हुए थे। द्वापर युग में श्रृंगी के पिता शमीक के गले में राजा परीक्षित ने मरा हुआ सांप डाल दिया था, जिससे क्रोधित होते हुए श्रृंगी ऋषि ने राजा परीक्षित को श्राप देते हुए कहा, ‘‘कुलांगर परीक्षित ने मेरे पिता का अपमान करके मर्यादा का उल्लंघन किया है, इसलिए मेरी प्रेरणा से आज के सातवें दिन उसे तक्षक सर्प डस लेगा।’’ कुछ लोग महाभारत में वर्णित शंखिनी के नाम से भी सांघन का नाम जोड़ते हैं।
मार्कण्डेय ऋषि स्थल है (मटोर) :-
कैथल से 30 किलोमीटर दूर दक्षिण में स्थित है-मटोर। यह स्थल मार्कण्डेय की जन्म भूमि माना जाता है।जनश्रुति के अनुसार पुत्र प्राप्ति हेतु उनकी माता और पिता मृकण्डु ने भगवान शिव को प्रसन्न करने हेतु तपस्या की थी। शिव कृपा से उन्हें मार्कण्डेय पुत्र रूप में प्राप्त हुए लेकिन अनकी आयु मात्र सोलह वर्ष थी। मार्कण्डेय शिव भक्त थे। 16 वर्ष की आयु में मृत्यु को आया देख ये शिवलिंग से लिपट गये और यमराज को खाली हाथ वापस लौटना पड़ा। मार्कण्डेय अमर होकर तपस्या करने पहाड़ों में चले गए। मार्कण्डेय के जन्म स्थल पर लगभग 3 एकड़ में एक सरोवर गना है। जहां सूर्य ग्रहण के अवसर पर एक मेला लगता है।
शकुदेव मुनि का स्थल है (सजूमा) :-
कैथल से दक्षिण पश्चिम की ओर 10 मिलोमीटर दूर है-सजूमा। यहां 20 एकड़ में फैला हुए एक सरोवर है जिसे सूर्य कुण्ड कहते हैं। सूर्य कुण्ड के नाम से ही सजूमा प्रसिद्ध तीर्थों की गणना में आता है। एक जनश्रुति के अनुसार महर्षि व्यास के पुत्र भगवान शुकदेव जी ने यहां तपस्या की थी। उनका वेश अवधूत का था। भाद्रपद मास में यहां मेला लगता है। मुनि शुकदेव की प्रतिमा नीचे एक गुफा में है। प्रतिमा तक जाने के लिए लगभग 70 फुट गुफा में होकर जाना पड़ता है।

कपिल मुनि तीर्थ (कलायत)

हरियाणा के जनपद कैथल से नवारना-हिसार मार्ग पर कैथल से 25 किलोमीटर की दूरी पर कलायत गांव स्थित है। जिसका सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत महत्त्व है। यहां कपिल मुनि नाम से एक प्रसिद्ध तीर्थ है। जिसका शास्त्रों में भी उल्लेख किया गया है। यहां कपिल अवतार की मूर्ति है तथा साथ में एक तीर्थ है। जिसे कपिल मुनि तीर्थ का नाम दिया गया है। इस तीर्थ के किनारे कात्यायनी मन्दिर, श्री लक्ष्मी नारायण मन्दिर स्थित हैं। इनके अतिरिक्त लगभग 7 वीं शताब्दी में पंचरथ शैली में बना हुआ एक शिव मन्दिर है।जहां प्रत्येक महीने की पूर्णिमा को एवं विशेष रूप से वर्ष में एक बार कार्तिक मास में पूर्णिमा के दिन मेला लगता है। ऐसी मान्यता है कि परमपिता ब्रह्मा के मानस पुत्र कर्दम ऋषि और महाराज मनु की पुत्री देवहुति की 9 कन्याओं के बाद अवतार के रूप में कपिल का दसवें स्थान पर जन्म हुआ था। भागवत के अनुसार तत्त्वों की गणना करने वाले भगवान कपिल लोगों कों आत्मज्ञान का उपदेश देने के लिए स्वयमेव उत्पन्न हुए। इनके द्वारा विरचित ‘तत्त्व समास’ नामक ग्रंथ में सांख्य के 25 तत्त्वों का उल्लेख किया गया है और तत्वों की संख्या के परिगणन के कारण ही यह शास्त्र सांख्य दर्शन कहलाता है।
कपिल मुनि तीर्थ के बारे में एक और किंवदन्ती प्रसिद्ध है जिसमें कहा जाता है कि राजा शल्यवान रात में मृतक के समान हो जाते थे और सुबह वह ठीक हो जाते थे। एक बार शिकार के समय अनजाने में कपिल मुनि तीर्थ में तीर मार बैठे। जब वह इस तीर को निकालने लगे तो उसका हाथ कपिल मुनि तीर्थ की मिट्टी से छू गया। जिससे उनके हाथ की वह अंगुलियां रात भर सक्रिय रहीं जो मिट्टी से छू गई थी। इससे प्रभावित होकर राजा और रानी ने अगले दिन इस तीर्थ में स्नान किया जिससे वह स्वस्थ हो गए।
इसी वजह से राजा शल्यवान ने यहां मन्दिरों का निर्माण करवाया था। उनके समय की एक चौखट आज भी विद्यमान है।

शुक्रवार, 22 मई 2009

कैथल के प्रसिद्ध तीर्थ-स्थान

कुरुक्षेत्र के पावन ४८ कोश क्षेत्र में स्थित कैथल में भी कुछ तीर्थ प्राप्त होते हैं । इसके प्रसिद्ध तीर्थ निम्नलिखित हैं जिनके महत्त्व पर प्रकाश डाला जा रहा है -
वृद्धकेदार तीर्थ स्थल:-
कैथल से उत्तर पूर्व में स्थित इस तीर्थ का बहुत महत्व है। इसके एक ओर पार्क झील के रूप में इसे विकसित किया गया है तथा इसका दूसरा रूप अभी तक उपेक्षित है। वामन पुराण में बताया गया है कि अगर कोई व्यक्ति इस स्थान पर तर्पण करके भगवान शिव को प्रणाम करने के बाद तीन चल्लू पानी पिता है, वह केदार तीर्थ पर जाने का फल प्राप्त कर लेता है -
कपिलस्थेति विख्यातं सर्वपातकनाशनम्।
यस्मिन् स्थितः स्वयं देवो वृद्धकेदारसंज्ञितः ।
(वामन पुराण, 36/14)
एवमेव-कपिष्ठलस्य केदारं समासाद्य सुदुर्लभम् ।
अन्तर्धानमवाप्नोति तपसा दग्धकिल्विषम् ।।
(महाभारत, वन पर्व 83/74)
यहां एक शिव मन्दिर बना हुआ है जो अष्टकोणीय है। यहां बने सरोवर की बुजियां भी अष्टकोणीय आकार लिए हैं। वामन पुराण में ऐसा भी कहा गया है कि कपिस्थल नामक तीर्थ में वृद्ध केदार नामक भगवान स्वयं विराजमान हैं।
ग्यारह रूद्री मन्दिर:-
कैथल के ही पश्चिम में महाभारत काल से एक प्रसिद्ध मंदिर है ग्यारह रूद्री । आज यह मन्दिर पूर्णतया आधुनिक रूप से विकसित किया जा चुका है। जिसका प्रवेश द्वार बहुत ही सुन्दर दिखाई पड़ता है। इस मन्दिर में ग्यारह रूद्रों की स्थापना की गई है। जिनके विषय में महाभारत में वर्णित उल्लेख के अनुसार ब्रह्मा जी के मानस पुत्र जो महान ऋषि थे मृगव्याध, सूर्प, निऋति, विनाकी, अहिवुथ, अजैकपाद दहन, ईश्वर, कपाली, स्थाणु और भव। महाभारत में लिखा है:-
एकादशसुताः स्थाणोः ख्याताः परमतेजसः।
मृगव्याधश्चसर्पश्च निऋतिश्चमहायशाः।
अजैकपादहिर्बुधन्यः पिनाकी च परंतप।
दहनोथेश्वरश्चैव कपाली च महाधुनिः।
स्थाणुर्मगश्च भगवान् रूद्रा एकादशस्मृताः।
(महाभारत, आदि पर्व 66/1-3)
ये एकादश ही रूद्रों के रूप में प्रसिद्ध हुए हैं। इस मन्दिर में जलहरी में ग्यारह रूद्र स्थापित किए गए हैं। मन्दिर के दक्षिण में सर्वदेव नामक तीर्थ है। जिसे सकलसर भी कहा गया है।

गुरुवार, 21 मई 2009

पाठकों से

पिछले कुछ सन्देशों में कविता-कहानी से हटकर आपके लिए तीर्थ-स्थानों से संबंधित लेख प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसी श्रेणी में हम कुरुक्षेत्र में स्थित तीर्थों की बात कर चुके हैं तथा कैथल के भी एक तीर्थ-स्थान के बारे में लिखा जा चुका हैं । अब जल्द ही कैथल और कैथल के आसपास के तीर्थों के बारे में आपको जानकारी प्रदान करना हमारा लक्ष्य रहेगा ।



मंगलवार, 12 मई 2009

कुरूक्षेत्र के प्रमुख तीर्थ

धर्मक्षेत्र कुरूक्षेत्र की 48 कोश की पावन धरा पर स्थित तीर्थों का वर्णन आप पिछले 3-4 लेखों से पढ रहे हैं । इसी श्रेणी में हम यह लेख प्रस्तुत कर रहे हैं जिसमें आप कुरूक्षेत्र नगर में स्थित प्रमुख तीर्थों के बारे में पढेंगे तथा शीर्षक रहेगा '' कुरूक्षेत्र के प्रमुख तीर्थ '' । लीजिए प्रस्तुत है -
ब्रह्म सरोवर (कुरूक्षेत्र):-
कुरूक्षेत्र के जिन स्थानों की प्रसिद्धि संपूर्ण विश्व में फैली हई है उनमें ब्रह्मसरावर सबसे प्रमुख है। इस तीर्थ के विषय में विभिन्न प्रकार की किंवदंतियां प्रसिद्ध हैं। अगर उनकी बात हम न भी करें तो भी इस तीर्थ के विषय में महाभारत तथा वामन पुराण में भी उल्लेख मिलता है। जिसमें इस तीर्थ को परमपिता ब्रह्म जी से जोड़ा गया है । सूर्यग्रहण के अवसर पर यहां विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। इस अवसर पर लाखों लोग ब्रह्मसरोवर में स्नान करते हैं। कई एकड़ में फैला हुआ यह तीर्थ वर्तमान में बहुत सुदंर एवं सुसज्जित बना दिया गया है। कुरूक्षेत्र विकास बोर्ड के द्वारा बहुत दर्शनीय रूप प्रदान किया गया है तथा रात्रि में प्रकाश की भी व्यवस्था की गयी है।
स्थानेश्वर महादेव मंदिर (कुरूक्षेत्र):-
स्थानेश्वर महादेव मंदिर का नाम कुरूक्षेत्र के मन्दिरों में आदर के साथ लिया जाता है इसके आधार पर ही यहां का नाम थानेसर पड़ा है। यहां पर शिवरात्रि के अवसर पर मेला आयोजित होता है।भगवान शिव यह भव्य मंदिर रात को विद्युत प्रकाश में जगमगाता रहता है। शिवरात्रि के अवसर पर इसकी छटा देखते ही बनती है।
सन्निहित सरोवर (कुरूक्षेत्र) -
कुरूक्षेत्र में स्थित प्रसिद्ध तीर्थ-स्थानों में सन्निहित सरोवर भी बहुत महत्व रखता है।कुरूक्षेत्र में कैथल मार्ग पर श्री कृष्ण संग्रहालय के पास स्थित है तथा मुख्य मार्ग पर इसका विशाल द्वार बना है। कहा जाता है कि यहां पर युद्ध के बाद पांडवों ने सभी दिवंगतों की मुक्ति के लिए पिंड-दान आदि कार्य किया था। यहां एक विशाल सरोवर का निर्माण किया गया है; जिसके चारों ओर रात्रि के लिए प्रकाश व्यवस्था भी की गई है।
यहां सभी देवी-देवताओं के मंदिर स्थित हैं। जिनमें इसके पास ही में स्थित प्राचीन लक्ष्मी-नारायण मंदिर प्रमुख है।अन्य सभी मंदिर सरोवरके आस-पास बने हुए हैं और तीर्थ की शोभा बढ़ाते हैं।
बाण गंगा (कुरू़क्षेत्र):-
कुरूक्षेत्र से पेहवा मार्ग पर ज्योतिसर से कुछ पहले ही मुख्य मार्ग से जुड़ा हुआ एक मार्ग हमें दयालपुरा गांव ले जाता है जहां स्थित है- बाण-गंगा। इसके बारे में अनुमान लगाया जाता है कि यहां शर-शैय्या पर लेटे भीष्म पितामह को प्यास लगने पर अर्जून ने अपने बाण द्वारा धरती से जल निकाल कर पिलाया था। वर्तमान समय अर्जुन के बाण लगने वाले स्थान पर एक कुएं का निर्माण किया गया है तथा हनुमान जी की विशाल प्रतिभा के साथ-साथ यहां शर-शैय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह की मूर्ति है।
भद्रकाली शक्तिपीठ (कुरूक्षेत्र):-
कुरूक्षेत्र में स्थित श्री देवीकूप (भद्रकाली) मंदिर मां सती के बावन शक्तिपीठों में शोभायमान है।
शास्त्रानुसार दक्ष-यज्ञ में अपने पति भगवान शंकर की निन्दा व अपमान देख-सुनकर भगवती सती ने अपने प्राणों को त्याग दिया। भगवान शिव उनके शव को हृदय से लगाए उन्मत की भांति ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाने लगे। तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से महाशक्ति के निवास स्थान मृत शरीर को बावन भागों में विभाजित कर लोग कल्याण के लिए पावन शक्तिपीठों के रूप में प्रतिष्ठित किया। नैना देवी, कामाख्या देवी, ज्वाला जी इत्यादि सभी बावन शक्तिपीठ मां के प्रिय निवास स्थल हैं।
हरियाणा में एक मात्र शक्तिपीठ श्री देवीकूप भद्रकाली मंदिर है। जिसका बहुत महत्व है। इस मन्दिर में रखा सती जी का दायां टकना बार-बार इतिहास का दोहराता है। इस शक्ति पीठ में महाभारत के युद्ध से पूर्व पांडवों ने विजय के लिए मां भद्रकाली का पूजन किया था। श्री कृष्ण और बलराम का मुण्डन संस्कार भी इसी मन्दिर में हुआ। इस मन्दिर में आने वाले हर श्रद्धालु की मनोकामना मां भद्रकाली पूरी करती है।जिससे मनोकामना पूर्ण होने के बाद भेंट स्वरूप यथा शक्ति सोने-चांदी के अथवा मिट्टी के घोडे़ चढ़ाने की ऐतिहासिक परम्परा है। नवरात्रों के अतिरिक्त शनिवार के दिन यहां विशेष रूप से पूजन होता है।
गीताजन्म स्थली (ज्योतिसर) कुरूक्षेत्र :-
संपूर्ण विश्व में भारत श्रीमद्भगवद्गीता के ज्ञान के लिए प्रसिद्ध है। गीता का ज्ञान आध्यात्मिक क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।  इस विषय में कोई भी जानकारी सुनने, पढने वाले के लिए कौतूहल का विषय होगी। यह गीता ज्ञान भगवान श्री कृष्ण के द्वारा अर्जुन को उस समय दिया जब वह मोहवश कौरवों से युद्ध करने से मना कर देता है। जैसा कि हम सब जानते हैं कि कौरव-पाण्डव युद्ध कुरूक्षेत्र की भूमि पर हुआ था। उसी के पास 4 कि0 मी0 दूरी पर स्थित ज्योतिसर नामक स्थान पर अर्जुन को गीता का उपदेश दिया गया।
यहां आज भी एक वृक्ष है जिसे गीता-ज्ञान का साक्षी माना जाता है। इसके पास ही एक ऐसा शिवलिंग है जिस पर कई प्रकार के प्रहारों के चिह्न भी हैं।
जिससे अनुमान लगाया जाता है कि यह भारत पर हुए विदेशी आक्रमणों के दौरान शत्रुओं के द्वारा किया गया कार्य है।इसके अतिरिक्त महाभारत से संबंधित अनेक चित्रों की झांकी भी यहां प्रदर्शित है। ज्योतिसर को सुदंरता और पर्यटन में अहम् स्थान प्रदान करने के लिए एक कृत्रिम झील का निर्माण भी यहां कुरूक्षेत्र विकास बोर्ड द्वारा किया गया है।

धर्मक्षेत्र कुरूक्षेत्र

हमारा भारत कश्मीर से कन्याकुमारी और कामाख्या से कच्छ तक एक तीर्थ है। यहां कोई ऐसी क्षेत्र नहीं जहां कोई पावन सरिता, पवित्र सरोवर, तीर्थभूत पर्वत, लोकपावन सरिता, मन्दिर या तीर्थभूमि न हो। यहां तो सब कहीं तीर्थ हैं। एक-एक तीर्थ में शत-शत तीर्थ हैं। भारत भूमि देवताओं के लिए भी दुर्लभ है तथा देवताओं के द्वारा भी इसकी वंदना की जाती है। इस देवधरा पर कितने तीर्थ हैं इसकी गणना करना संभव नहीहै। हालांकि इस विषय में थोड़ी-सी चर्चा यहां अवश्य करेंगे। भारत के प्रसिद्व तीर्थों में जिनका नाम आता है उनमें द्वादश ज्योतिल्र्लिग, पंचकाशी, पंचनाथ, पंचसरोवर, नौ अरण्यक, चतुर्दश प्रयाग, सप्तक्षेत्र, सप्तगंगा, सप्तपुण्य नदियां सिद्वक्षेत्र (इक्यावन), बावन शक्तिपीठ, सप्त सरस्वती, सप्तपुरियां,चार धाम आदि जाने कितने ऐसे तीर्थ स्थान हैं। जो अपने-अपने महत्व के कारण जगत प्रसिद्व हैं। इन सब में एक ऐसा तीर्थ स्थान है जिसका कुछ विशेष महत्व है और वह है कुरूक्षेत्र। कुरूक्षेत्र एक ऐसा तीर्थ स्थान है जिसकी गणना सप्तक्षेत्र, बावन शक्तिपीठ, सप्त सरस्वती इक्यावन सिद्वक्षेत्र आदि सभी में समान रूप से की गई है।
संसार के जिन स्थानों पर सबसे पहले मानव सभ्यता का विकास हुआ, उनमें धर्मक्षेत्र कुरूक्षेत्र का नाम अग्रगण्य है। सरस्वती एवं दृषद्वती जैसी पवित्र नदियों की इस धरा पर वैदिक सभ्यता का उद्भव हुआ। भारतीय धर्म, दर्शन, कला, साहित्य आदि के विकास में प्रथम सृजन यहीं हुआ। कृष्ण यजुर्वेद की मैत्रायणी शाखा में कुरूक्षेत्र का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद से प्राप्त जानकारी के अनुसार आर्यों की प्रमुख जातियां भरत एवं पुरू भी इसी पावन धरा से जुड़े रही हैं। जिनके सम्मिश्रण से कुरू नामक जाति का आविर्भाव हुआ। इसलिए ही इसे कुरूक्षेत्र कहा गया है । कुरूक्षेत्र यानि कुरूओं का क्षेत्र। प्रचलित किंवदंतियों के अनुसार महाराज कुरू ने 48 कोस कुरूक्षेत्र भूमि पर सोने का हल चलाया तथा धर्म का बीज बोया। कहा जाता है कि एक बार जब पृथ्वी पर अनाचार बहुत बढ़ गया। प्राणियों की दुर्दशा से दुःखी देवता बुद्धि के देवता परमपिता ब्रह्मा के पास पहुंचे। जब उन्होंने अपनी समस्या बताई तो वे बोले-इस समय धरती पर धर्म उत्थान के लिए एक ही उपाय है। सभी देवता एक साथ बोले- क्या उपाय है परमपिता शीघ्र बताइए?
इस पर ब्रह्मा जी ने कहा-हे देवताओं, आप इतने उत्सुक हैं तो ध्यान से सुनो-महाराज कुरू एक प्रतापी तथा धर्म व नीति से राज्य करने वाले राजा हैं।अगर वह अपने शरीर के टुकड़े कर बोने को तैयार हो जाएं तो जहां-जहां उनके शरीर के टुकड़े रोपित होंगे, वहां से धर्म का उत्थान होगा।अतः आप उनके पास जाइए और इसके लिए उनसे प्रार्थना कीजिए तथा श्री विष्णु की भी इस पावन कार्य में आप मदद ले सकते हैं।
तदनन्तर देवगण महाराजा कुरू के पास पहुंचे और उनसे ब्रह्मा जी के कथनानुसार अनुरोध किया। जब राजन् से देवों ने पृथ्वी के उत्थान की बात सुनी तो उन्होंने वह अनुरोध सहर्ष स्वीकार कर लिया। फिर सही समय पर भगवान श्री विष्णु के सुदर्शन चक्र से कुरू के शरीर के टुकडों में बांटकर कुरूक्षेत्र के पास के 48 कोस क्षेत्र में उनके द्वारा स्वयं हल चलाकर बोया गया। जब अंतिम टुकड़ को बोया जाने लगा तो भगवान नारायण ने उन्हें वर मांगने के लिए कहा। जिस पर महाराजा कुरू ने कहा कि प्रभु मुझे वर दीजिए कि भविष्य में जब कभी धर्म-अधर्म में युद्ध हो तो इसी भूमि पर हो।
ऐसा सुनकर प्रभु ने कहा -तथास्तु। तभी से यह पुण्य भूमि कुरूक्षेत्र के नाम से विख्यात है और यही कारण यहाँ धर्मयुद्ध महाभारत होने की पृष्ठभूमि भी रहा है। इसके अतिरिक्त दंत कथाओं, किंवदंतियो, जनश्रुतियों इत्यादि में भी इस बात की पुष्टि होती है। इस संबंध में कथाएं, प्रसंग एवं आख्यान प्रचलित हैं तथा उनका विशद विवरण भी प्राप्त होता है। यहां स्थित श्रयणावत सरोवर के पास इंद्र को महर्षि दधीचि से अस्थियों की प्राप्ति, पुरूरवा और उर्वशी का पुनर्मिलन, परशुराम द्वारा आततायी क्षत्रियों के खून से पांच कुण्ड भरने का वर्णन, वामन अवतार जैसे कई आख्यान लोक प्रचलित हैं।
महाभारत के युद्ध की रणस्थली तथा श्री मद्भगवतगीता के अद्वितीय उपदेश का पवित्र स्थल कुरूक्षेत्र एक ऐतिहासिक स्थान है। तैत्तिरीय आरण्यक में वर्णित इसके भौगोलिक रूप को देखने पर पता चलता है कि यह क्षेत्र सरस्वती, दृषद्वती, आपगा से परिबद्ध था। तैत्तिरीय आरण्यक के अनुसार इसके दक्षिण में खाण्डवप्रस्थ अर्थात् इंद्रप्रस्थ, पश्चिम भाग में मरूभूमि है।
महाभारत और वामन पुराण के अनुसार सरस्वती और दृषद्वती के मध्य की भूमि कुरूक्षेत्र कहलाती थी। जिसके चारों कोनों में चार यक्ष (द्वारपाल) प्रतिष्ठित थे। यहां 360 तीर्थों के होने की चर्चा है। ये सभी तीर्थ पौराणिक दृष्टि से सत्युग, त्रेतायुग, द्वापर युग एवं ऐतिहासिक दृष्टि से महाभारत के पूर्ववर्ती व परवर्ती काल से संबंधित हैं।
इस प्रकार से यहा सारी 48 कोस कुरूक्षेत्र भूमि हरियाणा के कुरूक्षेत्र, कैथल, करनाल, जीन्द एवं पानीपत जिलों में फैली हुई है।महाभारतानुसार उत्तर-पूर्व में रंतुक यक्ष (बीड़ पीपली के पास) पश्चिम में अरंतुक यक्ष (कैथल में बेहर गांव के पास) दक्षिण-पश्चिम में रामहृद यक्ष (जिला जीन्द में रामराय के पास) एवं दक्षिण पूर्व में मचक्रुक यक्ष (जिला पानीपत में शींख के पास) का स्पष्ट वर्णन मिलता है। इस प्रकार इन चार यक्षों द्वारा रक्षित इस आयताकार 48 कोस की भूमि में 360 तीर्थों की उपस्थिति मानी जाती है।
यहाँ के एक प्रसिद्ध लोक कवि ‘साधुराम’ की रचना के अनुसार यहां 9 नदियां 366 गाँव, 4 यक्ष, 33 करोड़ देवी-देवता, नाथ तथा 84 सिद्धों का निवास है।
कुरूक्षेत्र के पावन भूमि पर स्थित प्रमुख तीर्थों में ब्रह्मसरोवर, सन्निहित सरोवर, ज्योतिसर, पेहवा का पृथूदक तीर्थ, स्थानेश्वर महादेव मंदिर, भ्रद्रकाली मंदिर, रामहृद तीर्थ, सालवन तीर्थ, कपिलमुनि तीर्थ, वराह तीर्थ, आपगा तीर्थ ,सारसा का शालिहोत्र तीर्थ, बस्थली का व्यास स्थली तीर्थ, फरल (फलकीवन) स्थित फल्गु व पणिश्वर तीर्थ, भूरिश्रवा तीर्थ (भौर सैंदा), आदि अनेक प्रमुख तीर्थ हैं।
सप्तक्षेत्र, बावन शक्तिपीठ, सप्त सरस्वती, सिद्धक्षेत्र (इक्यावन) आदि में शामिल कुरूक्षेत्र की इस 48 कोस की पावन धारा पर स्थित हर गांव का संबंध किसी न किसी रूप में संस्कृति या सभ्यता से जुड़ा है।
वामन पुराण में कुरूक्षेत्र भूमि में स्थित सात वनों का स्पष्ट नामोल्लेख मिलता है। जैसे - काम्यक वन, अदिति वन, व्यास वन, फलकीवन, सूर्यवन वन, मधुवन तथा शीतवन । वामन पुराण के अनुसार इन पुण्यशाली वनों के नाम का उच्चारण करते ही मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं:-
श्रृणु सप्त वनानीह कुरूक्षेत्रस्य मध्यतः।
येषां नामानि पुण्यानि सर्वपापहराणि च।
काम्यकं वनं पुण्यं दितिवनं महत्।
व्यासस्य वनं पुण्यं फलकीवनमेव
तथा सूर्यवनस्थानं तथा मधुवनं महत्।
पुण्यं
शीतवनं नाम सर्वकल्मषनाशनम्
(वामन पुराण-34/3-5)
शास्त्रों के अनुसार सप्त सरस्वतियों में से एक ओघवती सरस्वती कुरूक्षेत्र में प्रवाहित होती है। इस विषय में प्राप्त शास्त्रोक्त जानकारी के अनुसार यहां सरस्वती प्रवाहित होती है। जिसका स्वरूप अब बदल चुका है। इसमें वर्षा ऋतु में ही पानी दिखाई देता है। सरस्वती के बारे में जो जानकारी हमें प्राप्त होती है तदनुसार पता चलता है कि सरस्वती सम्पूर्ण नदियों में श्रेष्ठ एवं पाप नाशक नदी है तथा ब्रह्मलोक से आई है।
सरस्वती सर्वप्रथम अपने जलावेग से पर्वतों को तोड़ती द्वैत वन में प्रविष्ट होती है। जहां महर्षि मार्कण्डेय उनके दर्शन करते हैं तथा उनसे कहते हैं कि हे सरस्वती! ब्रह्मसर, रामहृद, कुरूक्षेत्र, पृथूद्क (पिहोवा) में चलना योग्य है। ऐसा सुनकर सरस्वती वेग के साथ कुरूक्षेत्र पृथूद्क में प्रवेश करती है। पर कुछ किवंदंतियों के अनुसार जब मार्कण्डेय को सरस्वती के दर्शन होते हैं। उनसे विवाह का प्रस्ताव रखते हैं।
जिससे देवी रूष्ट होकर सर्प पर सवार होकर पेहवा से बानपुरा, कक्योर, पोलड़, सौथा, उमेदपुर, प्रभोत, घोघ, अन्घली से होती हुई साहब तक तीव्र गति से सांप की तरह टेढ़ी-मेढ़ी चलती हैं। वहीं मार्कण्डेय उन्हें मनाने के लिए उनके पीछे सीधा चलता है। लेकिन जब सरस्वती को यह अहसास होता है तो वह सर्प सवारी को छोड़कर हंस पर सवार होती हैं और डहर तक जाती है।
जब उन्हें मार्कण्डेय समीप प्रतीत होते है तो वह डूबकी लगाती हैं और प्रयागराज में प्रकट होती है। तब मार्कण्डेय भी योग साधना द्वारा प्रयाग में प्रकट होते हैं। जहां सरस्वती गंगा और यमुना के बीच से चलती है। ऐसे में जब मार्कण्डेय अपने मन की बात उन तीनों के सामने प्रस्तुत करते हैं तो वे बताती है कि हम तीनों ब्रह्मा की पुत्रियां हैं। हम एक साथ विवाह करेंगी अथवा कुंवारी रहेंगी। मार्कण्डेय जी ने कोई उत्तर नहीं दिया और तपस्या करने के लिए वन में चले गए।
तभी से सरस्वती त्रिवेणी रूप में प्रवाहित हो रही है। सरस्वती वास्तविकता में नदी नहीं वरन् उसे विद्या की देवी है जो समंदर में समाहित नहीं होती। अतः यह कुमारिका नदी भी कहलाती है।
मनुस्मृति के अनुसार देवनदी सरस्वती एवं दृषद्वती फल्गु में है। इन दोनों के मध्य जो स्थान है उसे ब्रह्मवर्त कहा जाता है। जहां ब्रह्मा ने यज्ञ किया था।
महाभारत के अनुसार ब्रह्मपुराण, स्कंद पुराण, शिवपुराण, भागवत पुराण, मार्कण्डेय पुराण आदि में तीस सरस्वती नदियों का वर्णन मिलता हैं। यथा-सुप्रभा नामक सरस्वती पुष्कर में, कांचनाक्षी सरस्वती नैमिषारण्य में ,प्रयाग सरस्वती गया में, उत्तरकौशल में मनोरमा सरस्वती तथा कुरूक्षेत्र में सुरेणु सरस्वती (ओघवती सरस्वती) जो दृषद्वती में मिल गई है तथा हिमालय की विमलोद सरस्वती जिसे श्री मद्भागवत में प्राची भागवत भी कहा गया है। यहां सातों सरस्वती इकट्ठी होने के कारण इसे सप्त सारस्वत तीर्थ की संज्ञा दी गयी है। दूसरा सप्त सारस्वत तीर्थ भी कुरूक्षेत्र की सीमा में ही विद्यमान है; जहां मंकणक मुनि को सिद्धि प्राप्त हुई थी। मंकणक मुनि के नाम से मांगणा नामक गांव में प्रसिद्ध तीर्थ है; यहां से सरस्वती जिला कैथल में प्रवेश करती है।जो वर्तमान में पूरे कुरुक्षेत्र के भू-भाग को पुलकित करती हुई बहती है ।निःसन्देह कहा जा सकता है कि कुरुक्षेत्र एक पवित्र धरा है जो हरियाणा ही नहीं वरन सम्पूर्ण भारत के लिए विरासत है।

तीर्थ क्या है

हम भारत की विशाल संस्कृति, सभ्यता की विरासत तीर्थ-स्थलों में से कुछ का परिचय यहां आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। जिसके तहत तीर्थ शब्द को परिभाषित किया जा रहा है। क्योंकि तीर्थों से परिचित होने के साथ हमें यह भी जान लेना चाहिए कि शाब्दिक दृष्टि सेतीर्थका क्या अर्थ होता है।

तीर्थ शब्द की उत्पति संस्कृत भाषा के 'तृ-प्लवनतरणयोः ' धातु से 'पातृतुदिवचिरिचिसिचिभ्यस्थक्' इस उणादि सूत्र से 'थक्प्रत्यय होने पर होती है। ‘तीर्यते अनेन’ अर्थात् इससे तर जाता है; इस अर्थ में तीर्थया अर्धार्चादि सेतीर्थःशब्द भी बनता है।
अमर सिंह ने निपान, आगम, ऋषिजुष्ट जल तथा गुरू की भी तीर्थसंज्ञा बतायी है -
' निपानागमयोस्तीर्थमृषिजुष्टजले गुरौ। '
(अमर0 3/थान्त 93)
अमर सिंह के टीकाकार निपान में तीर्थ का अर्थ नदी आदि में या जलाशय में किया है तथा आगम का अर्थ शास्त्र किया है। इसके साथ उन्होंने ऋषिसेवित जल, उपाध्यायादि एवं अयोध्या, काशी आदि स्थानों को तीर्थ कहा है।
विश्वप्रकाश-कोशकर ने शास्त्र, यज्ञ, क्षेत्र, उपाय, उपाध्याय, मंत्री, अवतार, ऋषिसेवित जल आदि को तीर्थ कहा है-
' तीर्थ शास्त्राध्वरक्षेत्रोपायोपाध्यायमन्त्रिषु।
अवतार्षिजुष्टाम्भः स्त्रीरजःषु च विश्रुतम्। '
(थद्विकम्, 8)
भारवि इस विषय में किरातार्जुनीयम्में कहते हैं-
' विषमोपि विगा हयते नयः
कृततीर्थः पयसामिवाशयः।। '
(किरात0 2/3)
कादम्बरी में बाणभट्ट लिखते हैं-
' तीर्थ सर्वविद्यावताराणाम् ।। 88 ।। '
अर्थात् तीर्थ उपचार साधन भी है।
इसी प्रकार भर्तृहरिशतकत्रयम्रघुवंशम्में कहा गया है;-
' मनो यद्यस्ति तीर्थन् किम् ॥ '
(भर्तृ0-2/55) ( रघु0- 1/85)
कहा गया है कि वह स्थान तीर्थ है जो किसी पावन नदी के किनारे स्थित हो।
इसी प्रकारमातंगलीलामें लिखा है-
‘तदनेन तीर्थेन घटेत्। ’
अर्थात् मार्ग माध्यम या साधन।
एवमेव- पुण्यात्मा, योग्य व्यक्ति के अर्थ में-
' क्व पुनस्तादृशस्य तीर्थस्य साधोः संभवः। '
(उतररामचरितम्-1)(मनुस्मृति-3/103)
मालविकाग्निमित्रमेंतीर्थशब्द को धर्मोपदेष्टा,अध्यापक के अर्थ में स्पष्ट किया गया है-
मया तीर्थादभिनयविद्या शिक्षित। '
इस प्रकार विभिन्न स्थानों परतीर्थशब्द को एक अनेक अर्थों में परिभाषित किया गया है। जिसके उपरांततीर्थशब्द को परिभाषित करते समय हम कह सकते हैं -
''तीर्थ से अभिप्राय उस माध्यम से है जो मानव को अंधकार से उजाले की ओर लेकर चलता है अर्थात् ऐसा व्यक्ति या स्थान जो किसी भी ढ़ंग से मनुष्य को स्वच्छता अथवा शुचिता प्रदान करता है।''
क्योंकि जल, महात्मा, पुण्यात्म, उपचार या अन्य जितने भी नाम उपरोक्त विद्वानों या ग्रन्थों द्वारा तीर्थ को दिए हैं वे सब मनुष्य को सुसंस्कृत बनाने में मददगार हैं और उसके मनोमालिन्य को दूर करते हैं।
तीर्थशब्द से परिचित होने के बाद तीर्थों संबंधी जानकारी प्राप्त करना रूचिकर तो होगा ही उसके साथ-साथ हमारे लिए हितकर भी रहेगा। अगर तीर्थ के महत्त्व की बात भी यहाँ की जाए तो प्रासंगिक भी होगी और लाभप्रद भी रहेगी शास्त्रों में इनके महत्व पर बहुत कुछ लिखा है पर यहाँ इस लेख में अथर्ववेद का निम्नलिखित मंत्र ही उचित और श्रेयस्कर रहेगा -
‘तीर्थ स्तरन्ति प्रवतो महीरीति,
यज्ञकृतः सुकृतो येन यन्ति। ’
अथर्ववेद (18-4-7)
मनुष्य तीर्थों के सहारे बड़ी से बड़ी विपतियों से तर जाता है। बड़े से बड़े पाप तीर्थ -सेवन से समाप्त हो जाते हैं, और तो और तीर्थ स्थान करने वाला महान यज्ञ करने वालों के रास्ते से ही स्वर्ग जाता है। इसी प्रकार ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद में भी तीर्थ के महत्व पर अनेक मंत्र संकलित हैं।

सोमवार, 11 मई 2009

पणीश्वर तीर्थ फल्कीवन (फल्गु)




फल्गु तीर्थ से दो किलोमीटर दूरी पर स्थित पणीश्वर तीर्थ है। महाभारत में इस नाम से किसी तीर्थ का वर्णन प्राप्त नहीं होता। परन्तु महाभारत के अनुशासन पर्व के दसवें अध्याय में पाणिखात के नाम से एक तीर्थ उल्लेख हैं जिसके बारे में धारणा है कि वही पाणिखात पणीश्वर है। पाणिखात के विषय में एक स्थान पर वर्णित है-
‘पाणिखातं मिश्रकं च मधुवटमनोजवौ।’
(ब्रह्मा पुराण: 25/42)
इस तीर्थ में स्नान करने के पुण्य के विषय में कहा गया है कि इस तीर्थ में स्नान करने से मनुष्य को एक हजार गाय दान करने के समान फल मिलता है। आगे कहा गया है कि जो मनुष्य पणिश्वर तीर्थ में पितृ-तर्पण करता है,वह राजसूर्य यज्ञ के फल का उपयोग करता है।


इस पणिश्वर तीर्थ पर वर्तमान में श्री हनुमा जी का व्य मंदिर है जिसमें जरंगबली की सुदं प्रतिमा है। सके अतिरिक्त च्चे तीर्थ को पक्का करने में काम भी किया जा रहा है
पाठकों से :-
साथियों , पिछले दो सन्देशों में आप दो तीर्थों के बारे में पढ़ चुके हैं । हालांकि इस प्रकार के लेख आपके लिए जारी रहेंगे पर तीर्थ शब्द का अर्थ और अभिप्राय जानना भी आवश्यक प्रतीत होता है। अतः आपके लिए अगला लेख होगा - '' तीर्थ क्या है'' ।

हिन्दी ब्लॉग टिप्सः तीन कॉलम वाली टेम्पलेट